Sunday, April 18, 2010

जंतर-मंतर के बाद क्या ...

दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ जवानों की नक्सलियों के हाथों शहादत के बाद से सरकार, मीडिया और बैंक बैलेंस रखने वाला मध्य वर्ग इस बात की जोर-शोर से वकालत कर रहा है कि माओवादियों को जड़-धड़ और सर तीनों से कलम कर देना ही भारत के लिए बेहतर है. इस काम में थल सेना और वायुसेना की सीमित (सीमा सरकार तय करेगी) सहायता का विचार सरकार के स्तर पर चल रहा है, बीजेपी ने पहले ही बिना शर्त समर्थन दे दिया है और बंगाल की चोट से तिलमिलाए कॉमरेड भी कह रहे हैं कि नक्सल हिंसा को रोकना तो पड़ेगा ही. पर रोकें कैसे, इस पर सरकार, कांग्रेस, वामदल सबके अंदर मतभेद हैं.

 

कोई इसे पूरी तरह विधि व्यवस्था का सवाल बता कर पिला हुआ है तो कोई कहता है कि समस्या को समग्र तरीके से देखना चाहिए और नक्सल विरोधी अभियान के साथ ही नक्सलियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से साथ दे रहे लोगों का दिल जीतना चाहिए. कुछ काम करना चाहिए जिससे नक्सलियों के हमदर्द और सिपाही बनकर मां, बाप, बीवी और बच्चों को छोड़कर जंगलों में भटक रहे लोगों को लगे कि सरकार उनके लिए सोच रही है, कुछ कर रही है. इस भरोसे की कमी से मामला हाथ से बाहर होता दिखता है या हो चुका है.

 

इस बार सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए हैं तो जाहिर है अगला निशाना नक्सली बनेंगे और दर्जन-आधा दर्जन लोग मार गिराए जाएंगे. जो मारा जाएगा, वो नक्सली होगा जो बच जाएगा वो गरीब होगा या आदिवासी. फिर उसका जवाब नक्सली लैंडमाइन लगाकर या कैंप पर हमला करके देंगे. ये अंडरवर्ल्ड की लड़ाई की तरह है. जिसे मौका मिलेगा, धड़धड़ा देगा. जो गिरा वो शहीद जो बचा वो बहादुर. अभी जनगणना का काम शुरू हुआ है, इनकी गिनती भी नहीं होगी क्योंकि ये किसी को मिलेंगे नहीं. अगर मिल गए तो जनगणना अधिकारी पहचान नहीं पाएंगे कि ये नक्सली है या आम नागरिक क्योंकि सारे नक्सली भी भारतीय नागरिक हैं. इसलिए पश्चिमी मीडिया इसे सिविल वार भी कहता है.

 

इसी धंधे में हूं इसलिए जानता हूं कि इराक पर हमले के लिए रासायनिक और जैविक हथियारों की जॉर्ज बुश की गल्पकथा का भंडाफोड़ भी उन्हीं के मीडिया वालों ने किया था. अमेरिका और ब्रिटेन की पत्रकारिता ने दुनिया को हमेशा कुछ करके दिखाया है. भारत के समाचार संगठन आर्थिक उदारीकरण के बाद से विज्ञापन के ऐसे नचनिया हो गए हैं कि कोई भी अपनी जगह और अपने तरीके से उनसे मुजरा करवा सकता है. यहां तो ऐसे ओजस्वी पत्रकार पाए जाते हैं जो पाकिस्तान पर हमला करने का दबाव बनाते हैं, नक्सलियों को आतंकवादी कहते हैं. मुझे तो ये सोचकर डर लगता है कि अगर ऐसे
लोग देश के रक्षा मंत्री होते तो मुंबई हमले की सुबह ही शायद दोनों देशों के 30-40 करोड़ लोग भी निपट गए होते. आजकल वो गृहमंत्री बनने की कोशिश कर रहे हैं. असल में चिदंबरम और उनकी बोली बोल रहे संपादकों में जो ठसक है वो उनकी क्लास है. गरीब लोगों की और हिन्दी या दूसरे क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों की कोई क्लास नहीं होती. ये लड़ाई क्लासिक और क्लासलेस लोगों की भी लड़ाई है.

 

हो सकता है कि नक्सली दिन घर में बिताते हों और रात में हथियार उठाकर हमला करते हों. ये भी हो सकता है कि वो रात में घर पर रहते हों और दिन में जंगलों में ट्रेनिंग लेते हों. हो तो ये भी सकता है कि ये दिन में शहर में काम करते हों और रात में नक्सली बन जाते हों. इन्हें पहचानना सबसे बड़ा काम है और ये काम इतना बड़ा है कि पूरी की पूरी सेना भी दंतेवाड़ा में उतर जाए तो भी चूने की लाइन के इस पार और उस पार लोगों को खड़ा करके बताना मुश्किल होगा कि ये नक्सली हैं और ये नहीं हैं. नक्सल विरोधी अभियान की नाकामी का सबसे बड़ा कारण यही है कि नक्सली भी इसी देश के लोग हैं जो आम लोगों की तरह लुंगी, पैंट पहनते हैं. सीआरपीएफ के जवानों की तरह वर्दी नहीं पहनते. इसलिए सीआरपीएफ की टुकड़ी को निशाना बनाना आसान है, नक्सलियों के जत्थे को मुश्किल.

 

खैर, गरीबों के एक समूह की चिंता यह है कि अगर उसे उसका पंचायत सचिव या मुखिया बीपीएल कार्ड या राशन कार्ड नहीं देता है तो वो क्या करेगा. बीडीओ के पास जाएगा, एक आवेदन देगा. बीडीओ ने कुछ न किया तो एसडीओ के पास जाएगा. उसने भी कुछ न किया तो जिला आपूर्ति पदाधिकारी के पास जाएगा. वहां भी सुनवाई न हो तो जिलाधिकारी के पास जाएगा. आयुक्त, आपूर्ति सचिव, मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री के रास्ते वो जंतर-मंतर तक पहुंच जाएगा. यहां धरना देगा, प्रदर्शन करेगा. लेकिन यहां प्रधानमंत्री ने नहीं सुनी तो क्या करेगा. जंतर-मंतर के बाद क्या करने के विकल्प उसके पास हैं. इसके बाद वो लौट जाएगा या वहीं आत्मदाह कर लेगा. खुद के सिर पर पिस्तौल सटाकर मारना कितना मुश्किल होता है, ये जिसने खुदकुशी की होगी या ऐसा करने की कोशिश की होगी, वही जानता होगा. गांव लौट जाना और पंचायत सचिव का खून कर देना आत्मदाह करने से ज्यादा बेहतर विकल्प है. ये गैर-कानूनी है, अवैध है लेकिन उपलब्ध विकल्पों में सबसे बेहतर है.

 

मीडिया में जब पिछले साल लोगों को नौकरी से मंदी के नाम पर निकाला जा रहा था तो लोग यूनियन, श्रम कानून की बात कर रहे थे. ये वही लोग थे जो कर्मचारी संगठनों की हड़ताल को देश और देश की जनता के खिलाफ बताते नहीं अघाते थे. खुद पर पड़ी तो कर्मचारी का अधिकार याद आने लगा. छठा वेतन आयोग कब की सिफारिश दे चुका है. लेकिन हर राज्य में सरकार कर्मचारियों के प्रदर्शन, उनकी रैलियों और हड़ताल के बाद ही उसका लाभ दे रही हैं. लेकिन सरकार रैली, प्रदर्शन के बावजूद अड़ जाए कि नहीं देंगे तो क्या करेंगे. फिर जंतर-मंतर पहुंचेंगे और वहां मांग न सुनी गई तो....?

 

असल में सबसे बड़ी साजिश यही है कि विरोध का तरीका क्या होगा और विरोध की सीमा क्या होगी, ये भी सरकार ने तय किया है जिसके खिलाफ एक तरह की समस्या से परेशान लोग एकजुट होते हैं. जंतर-मंतर पर आपके स्वागत में पानी से हमला करने वाला दस्ता, लाठियां बरसाने वाला दस्ता, गोलियां चलाने वाला दस्ता तैनात रहता है. ये दस्ता बिना कुछ बोले बोलता रहता है कि संसद पर प्रदर्शन का मतलब संसद में घुस जाना नहीं है, बस संसद से दूर यहीं तक तुम्हें रुकना है. इसके आगे बढ़ने की कोशिश की तो हम तैयार हैं. अगर वहां गोली चल जाए, पत्थर चल जाए और दोनों तरफ के 10-10 लोग मारे जाएं तो किसे शहादत कहेंगे और किसे मौत. यही फर्क है सीआरपीएफ के लोगों की शहादत और नक्सलियों की मौत में. सरकार ने खुद के खिलाफ आंदोलन की बातचीत का अधिकार अपने ही पास रखा है. ये अधिकार कोर्ट को दे दो. जिसे केंद्र सरकार से मांग करने के छह महीने के अंदर जवाब या कार्यवाही न दिखे, वो इस कोर्ट की शरण में जाए. रास्ता तो बताओ कि अगर किसी इलाके के लोगों को सरकार के किसी फैसले से दिक्कत है तो वो अपनी बात मनवाने के लिए सरकार के ऊपर कहां तक जा सकते हैं. और अगर रास्ता नहीं है तो बांध कहीं से भी टूट सकता है. बांध का टूटना हमेशा गलत ही होता है लेकिन सच तो यही होता है कि धार को जगह नहीं मिली तो उसने जगह बना ली.

 

मध्यम वर्ग हर साल उम्मीद करता है कि आम बजट में कर में छूट दी जाएगी, कर रियायत का दायरा बढ़ाया जाएगा. हम खाते-कमाते लोग महंगाई से परेशान हैं और चाहते हैं कि सरकार हमारा बोझ उठाए, टैक्स कम ले. तो अगर गरीबों का कोई इलाका अपनी बुनियादी जरूरत- खाना, कपड़ा, छत- की बात करता है तो मिड्ल क्लास कहता है कि ये हरामखोर लोग हमारी कमाई पर पलते हैं और सरकार के खजाने पर बोझ हैं, उसमें छेद कर रहे हैं. अगर ठीक-ठाक कमाई के बावजूद सब्जी, आटा, दाल, चीनी, प्याज की कीमत से हम रो रहे हैं तो उस परिवार की कल्पना कीजिए जो पांच-छह लोगों का पेट पालता है और उसके पास न तो काम है और न नौकरी. महंगाई के खिलाफ दिल्ली के खाए-अघाए लोग टीवी पर बाइट और अखबारों में बयान देते हैं और पूरे दिन चलाकर हम सरकार को सस्ती दाल बेचने के लिए 12 घंटे के अंदर मजबूर होता देखते हैं. मीडिया की यह ताकत उन गरीबों के हक में क्यों नहीं है.

 

दिल्ली में अवैध निर्माण पर सीलिंग का अभियान शुरू हुआ तो सरकार ने कोर्ट और संसद दोनों जगह अवैध कब्जा करने वालों के बचाव के उपाय किए. अवैध कॉलोनियों को नियमित करने के लिए सरकार कानून बदल लेती है. क्योंकि ये वो लोग हैं जो मीडिया के चहेते हैं और मीडिया में छप रहे उपभोक्ता सामान के ग्राहक हैं. गांव का गरीब तो धोबी का कुत्ता है. न सरकार उसकी परवाह करती है और न मीडिया. क्योंकि उसके पास बिजली नहीं है कि वो किसी चैनल को टीआरपी दिला सके, बिजली होती भी तो टीआरपी का मीटर नहीं होता. पैसे नहीं है कि अखबार खरीदकर वो उसमें छपे फेना सर्फ के विज्ञापन को पढ़े. गरीबी अपने साथ कई तरह के साइड इफेक्ट लेकर आती है. मीडिया और सरकार की बेरुखी भी उनमें से एक है. वोट का समय आएगा तो ये वोट तो देंगे ही. कांग्रेस या बीजेपी को नहीं देंगे तो आरजेडी को देंगे, जेडीयू को देंगे, जेएमएम को देंगे, जिसको भी जिताएंगे दिल्ली में उनको मिला लिया जाएगा.

 

हम दिल्ली में 23-24 घंटे बिजली का मजा लेते हैं लेकिन यह आनंद हमें पटना को 18 घंटा, पूर्णिया को 12 घंटा और राजापुर को 6 घंटा बिजली देने की शर्त पर मिल रहा है. सरकार क्यों नहीं तय कर लेती कि देश में 100 मेगावाट बिजली है और हम इसे हर नागरिक को समान तरीके से बांटेंगे और इसलिए दिल्ली को 13 घंटा और राजापुर को भी 13 घंटे बिजली की आपूर्ति की जाएगी. सरकार ऐसा करके देखे, दिल्ली का मध्य वर्ग लोहरदगा के नक्सलियों से बड़ा उत्पाती न निकल जाए तो कहिए.

 

दो-तीन दिन पहले मोंटेक सिंह कह रहे थे कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या के संशोधित अनुमान से सरकार को 6000 करोड़ का ज्यादा खर्च उठाना होगा. ये मोंटेक साहब मनरेगा, बीपीएल जैसी योजनाओं पर खर्च के समय ही इस तरह से बोलते हैं .... सरकार को इतना खर्च उठाना होगा.... ऐसे बोलते हैं जैसे देश उनकी जागीर है और उसका पैसा उनकी बपौती और उन्हें सारा बोझ उठाना पड़ रहा है. मोंटेक सिंह यही बात तब नहीं कहते जब वो किसी बड़ी कंपनी को टैक्स हॉलीडे देते हैं, उन्हें तब भी कहना चाहिए कि फलां कंपनी की इस योजना से देश को 1 लाख करोड़ या अठन्नी का खर्च उठाना पड़ेगा. जिसके वोट से सरकार चला रहे हो, जिस सरकार ने तुम्हारी पगड़ी नीली कर रखी है, उसी वोटर पर होने वाले खर्च के बारे में ऐसा कह रहे हो जैसे वो हरामखोर हों. भैया, आपके पास काम है तो उनको काम दे दो, वो कामचोर निकलें तो कहना. काम दोगे नहीं तो वो कमाएंगे क्या और खाएंगे क्या. नक्सलियों ने कंधे पर बंदूख रखकर घर में चूल्हा जला दिया है तो वो उसके साथ क्यों न जाएं.

 

सीआरपीएफ के जवानों की शहादत से सब दुखी हैं क्योंकि वो निर्दोष थे. उनका कसूर यही था कि वो सरकार की सुरक्षा एजेंसी के वो नुमाइंदे थे जो जंगलों या पहाड़ों से अपने काम की चीज निकालने वाली कंपनियों के वहां तक पहुंचने की सरकारी जिद की पूर्ति में झोंक दिए गए हैं. आदिवासी अगर नहीं चाहते कि छतरपुर की पहाड़ी को ध्वस्त करके लोहा निकाला जाए तो इसमें दिक्कत कहां हैं. सरकार को इसी से दिक्कत है कि उसने किसी कंपनी से पैसे वसूल लिए हैं कि फलां इलाके का लोहा तुम्हारा. कंपनी लोहा खोदने गई तो लोगों ने खदेड़ दिया. पुलिस वाले भेजे गए. गांव वालों को रगेद दिया. पुलिस पहुंची तो हथियारबंद नक्सली भी पहुंच गए. जनता ने कहा कि पुलिस के साथ जाएंगे तो ये लोग जंगल कटवाकर लोहा को निकलवा देंगे, लेकिन नक्सलियों के साथ गए तो जंगल बचने की गुंजाइश है. जंगल ही उनका जीवन है. स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली जैसी चीजों के मामले में सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड उनके पास ही है. सरकार पर भरोसा करने से ज्यादा बेहतर उन्हें नक्सलियों पर भरोसा करना दिखता है. एक कॉरपोरेशन की तरफ काम कर रही सरकार अपने व्यापारिक फैसलों का विरोध करने वाली हर आवाज, हर जमात को नक्सली, आतंकवादी और देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताने और उनकी लाश बिछाने को तैयार है.

 

नक्सली या उनके पीछे खड़े सौ-हजार-लाख या जो भी संख्या सरकार आंकती हो, ये लोग संसद या राष्ट्रपति भवन नहीं मांग रहे हैं. वो बस यही कह रहे हैं कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दो, जंगल में हैं तो जंगल में ही रहने दो. तलहटी में हैं तो यहीं रहने दो. अब यहां से हिलाओ मत क्योंकि हमने इसी के साथ जीना सीख लिया है. अगर उनके पास पैसा नहीं है लेकिन वो भारत के नागरिक हैं तो क्या सड़क, अस्पताल, बिजली, स्कूल, घर और भोजन मांगना अपराध है, पाप है. सरकार इन चीजों की मांग को जंतर-मंतर से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं देती इसलिए ये सरकार है जो लोगों को मजबूर करती है कि वो मांग रखने या विरोध करने के वैकल्पिक तरीके अपनाए. किर्गिस्तान में लोगों ने राष्ट्रपति को देश से खदेड़ दिया. बैंकॉक में लोगों ने सरकार का हुक्का-पानी बंद कर रखा है. भारत के लोग इतने एकजुट और इतने साहसी नहीं हैं कि वो गरीबों के दुश्मनों को दिल्ली आकर खदेड़ सकें. इसलिए नक्सलियों ने अपने घर के आसपास ही सरकार के शागिर्दों से निपटने का हिंसक तरीका अपनाया है. ये दुखद है, देश के लिए खतरनाक है, घातक है लेकिन इस सबके बावजूद सरकार के पास इससे निपटने का जो तरीका है, वो जहरीला है और पूरे शरीर में फैलेगा. शहीदों पर फूल चढ़ाने और लाल सलाम के नारे लगाने का सिलसिला कब खत्म होगा, कैसे खत्म होगा, ये सबसे बड़ा सवाल है. कॉरपोरेट सरकार के गृहमंत्री के पास इसका जवाब नहीं हो सकता.

Wednesday, January 6, 2010

नवभारत टाइम्स के ऑनलाइन संस्करण का कोई संपादक नहीं है क्या

टाइम्स समूह के स्वामी विनीत जैन साहब के बारे में दो कहावत है. एक तो ये कि इस देश में एक दशक बाद जो भी होने वाला होता है, उसे जैन साहब सबसे पहले भांप लेते हैं और उसके मुताबिक अखबार में उत्पाद बदल जाता है. लोगों को एक तरह से दस साल बाद के समाज और उसके माहौल के लिए तैयार करने का जिम्मा टाइम्स परिवार उठाता है.

दूसरी कहावत यह है कि जैन साहब कहते हैं कि किसी भी अखबार में किसी को तीन साल से ज्यादा और उससे कम काम नहीं करना चाहिए, मतलब कि तीन साल काम करना चाहिए. कहावत के मुताबिक वो यह मानते हैं कि तीन साल के बाद उस कर्मचारी में ऐसा कुछ तेज, ऐसी कोई प्रतिभा छुपी नहीं रह जाती है जिसका फायदा अखबार को हो सके और कंपनी भी जो किसी कर्मचारी को दे सकती है वो तीन साल में दे चुकी होती है.

टाइम्स समूह का हिन्दी अखबार है नवभारत टाइम्स. इस अखबार को काफी पहले मैं बिहार में पढ़ा करता था लेकिन वहां के पाठकों ने इनकी दुकान बंद करा दी. वैसे कहने वाले यह भी कहते हैं कि यूनियन के पंगे में पटना से प्रकाशन बंद हुआ लेकिन जो हुआ, अच्छा ही हुआ. कहते हैं न ऊपर वाला जो करता है, भले के लिए करता है. इस अखबार की ऑनलाइन साइट है http://navbharattimes.indiatimes.com/. आप भी जाइए और देखिए कि क्या तमाशा चल रहा है इस साइट पर खबरों के नाम पर.

पहले इस लिंक पर जाइए और तय कीजिए कि क्या ये किसी अखबार की वेबसाइट पर लगाई जा सकती है.
http://photogallery.navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5239385.cms

वैसे ये तस्वीरें पहले भी यहां-वहां चिरकुट तरीके से दिखी हो सकती हैं लेकिन इसे एक जगह जुटाकर और सजाकर इस कैप्शन के साथ छापना कि लो उठ गई स्कर्ट और देख लो कैमरे ने क्या कैद किया है, इस गैलरी में छपी छह महिलाओं के लिए अपमानजनक है. नवभारत टाइम्स की साइट पर फोटो धमाल के नाम पर ऐसी-ऐसी तस्वीरें गैलरी में छुपा-छुपा कर लगाई गई हैं जिन्हें देखने की इजाजत अब कुछ सर्च इंजन भी नहीं देती.

और इन लिंकों को भी देख लीजिए. इस तरह की गैलरी से भरा हुआ है नवभारत टाइम्स का पोर्टल.
http://navbharattimes.indiatimes.com/photomazaashow/3520800.cms
http://navbharattimes.indiatimes.com/photomazaashow/4494682.cms
http://navbharattimes.indiatimes.com/photomazaashow/4494684.cms

एक अखबार की साइट पर खबर या शिक्षा देने का काम होता है. सवाल ये उठता है कि ये गैलरी किस दर्जे में रखी जाएं. खबर तो इनमें से किसी में नहीं है. शिक्षा देना चाहते हैं तो क्या स्कर्ट उठने के बाद तस्वीर कैसे ली जाए या यूं कहें कि स्कर्ट पहनकर सोफे या कुर्सी पर बैठने वाली महिलाओं की तस्वीर खींचने में एंगल का ध्यान किस तरह से रखना चाहिए. सेक्स की शिक्षा देना चाहते हैं तो इसमें ये बताने की क्या जरूरत है कि कौन पहले लेटे और कौन बाद में, कौन कपड़े खोलने की पहल करे और कौन इंतजार करे, कौन बर्फ के टुकड़े को पिघलाए और कौन पिघलता हुआ देखे.

नवभारत टाइम्स अखबार के तो संपादक हैं, ये हम सब जानते हैं. लेकिन नवभारत टाइम्स की वेबसाइट का कोई संपादक है या नहीं, ये समझ में नहीं आ रहा. और अगर नवभारत टाइम्स और टाइम्स समूह इन गैलरी को गर्व के साथ छाप रहा है तो अखबार में भी क्यों नहीं इन चीजों को चिपकाया जा रहा है. संपादक ने तय कर दिया है कि ये छापना चाहिए तो क्या पोर्टल पर उल्लू आते हैं जिन्हें कुछ नजर नहीं आता और क्या सुबह-सुबह अखबार पढ़ने वाले मोतियाबिंद के शिकार हैं जिन्हें छापने के बाद दिखने में दिक्कत होगी. पाठकों के साथ ऐसा भेदभाव क्यों. अगर पोर्टल पर कोई चीज नवभारत टाइम्स पाठकों के लिए उचित समझता है तो उसे अखबार में छापने में कैसी शर्म और अगर शर्म है तो अखबार के नाम पर पहुंच रहे पाठकों को क्यों शर्मसार कर रहे हैं. सविता भाभी नाम से जो साइट चल रही थी, उसमें भी तो यही सब था. स्केच और कामुक भाषा की मदद से एक बाजार पैदा किया जा रहा था. उसे तो बंद करवा दिया गया.

फिर बात जैन साहब के पास ले चलते हैं. जैन साहब, अगर नवभारत टाइम्स की वेबसाइट के संपादक के कार्यकाल के तीन साल पूरे हो गए हैं तो अब समय आ गया है कि उन्हें नमस्ते कह दिया जाए. उनके पास पीटीआई की खबरों के अलावा साइट पर दिखाने या पढ़ाने के लिए इंडिया टीवी जैसी सोच के अलावा कुछ नहीं है. और अगर इसका कोई संपादक नहीं है और ऐसा तीन साल से है तो अब समय आ गया है कि इसे एक संपादक के हवाले कर दिया जाए. बहुत बदलाव की जरूरत नहीं है इस साइट पर, सिर्फ कुछ सोचने की जरूरत है कि क्या छापें और क्या नहीं. आपके दुलारे प्रकाशन टाइम्स ऑफ इंडिया में तो ऐसा नहीं होता है.

Saturday, January 2, 2010

सुशासन बाबू की सरकार की साइट पर अराजकता

बिहार में आरटीआई और दूसरी चीजों के लिए हेल्पलाइन नंबर की शुरुआत करने वाली (वैसे यह भी हाथी का दांत साबित हुआ) नीतीश सरकार की वेबसाइट का क्या हाल है जो देश और दुनिया के लोगों की बिहार तक पहुंच का दरवाजा है, देखकर रोना आता है.
 
विधानसभा सदस्यों की सूची में जिला और विधानसभा सीटों का कोई मेल नहीं हैं. कोई सीट, किसी जिले में पड़ी हुई है. बेगूसराय जिले के नाम पर वैशाली की विधानसभा सीटें और उनके विधायकों के नाम दर्ज हैं तो बेगूसराय के विधायकों का नाम पश्चिम चंपारण के खाते में है. तमाम जिलों और उनकी विधानसभा सीटों के साथ गजब की खिचड़ी बना दी गई है.
 
सांसदों और विधान परिषद सदस्यों के बारे में बताने वाले पन्ने पुरानी हालत में पड़े हुए हैं. सुशासन बाबू की सरकार की साइट पर फैली अराजकता का मजा आप भी लीजिए.
 
अगर सुशासन बाबू को कुछ लिखना चाहते हैं तो cmbihar-bih@nic.in उनका मेल पता है.
 
विधायकों की सूची
 
विधान परिषद सदस्यों की सूची-
 
लोकसभा सांसदों की सूची-

Thursday, December 31, 2009

क्या एनडी तिवारी की बोलती कांग्रेस ने बंद की?

एनडी तिवारी आंध्र प्रदेश के राज्यपाल पद से विदा होने के बाद से उत्तराखंड में जमे हुए हैं. बुधवार को उन्होंने स्टार न्यूज को एक इंटरव्यू दिया लेकिन इंटरव्यू में ऐसे एक भी सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया जो जवाब लोग जानना चाहते हैं. सवाल जब बार-बार पूछे गए तो वो उठकर चले गए. पूरे इंटरव्यू को देखने और तिवारी जी के जवाब से बिना कहे यह बात उभर कर आती है कि कांग्रेस पार्टी ने उनसे कह दिया है कि मुंह बंद रखिए. बवाल खत्म करने के लिए बवाल को बढ़ाना सही नहीं रहेगा.

उनसे जब यह पूछा गया कि वो उस टेप में हैं या नहीं जिसको लेकर मचे बवाल के बाद उन्होंने स्वास्थ्य कारणों पर पद छोड़ने की घोषणा की. जवाब में उन्होंने न हां कहा और न ना कहा. बोले कि मेरी तस्वीर तो आजादी के समय से है. अंग्रेजों के पास थी. मेरी तस्वीरें तो बिखरी हुई हैं. बॉलीवुड, हॉलीवुड और रामोजी फिल्म सिटी में बहुत कुछ होता है. उन्होंने सीधे नहीं कहा कि तस्वीर उनकी है और वो यह कहना चाहते हैं कि उनकी तस्वीर को तकनीक के सहारे नंगी-अधनंगी लड़कियों के साथ चिपका दिया गया है. लेकिन उनका जवाब जो था, वो यही कहना चाहता था. इस जवाब को सुनकर लगता है कि सचमुच वो मंजे हुए राजनेता हैं. सीधे सवाल का भी जवाब टालना उन्हें बखूबी आता है.

उनसे जब पूछा गया कि राधिका नाम की औरत ने कहा है कि उसे राजभवन के एक अधिकारी ने खदान दिलाने का आश्वासन दिया था और तभी उसने लड़कियां भेजी थीं. तिवारी जी ने कहा कि वो राधिका को नहीं जानते. राधिका ने कभी नहीं कहा कि वो नारायण दत्त तिवारी को जानती है. उसने तो बस यही कहा था कि राजभवन के एक अधिकारी के जरिए वो दिन-रात जब भी जरूरत महसूस करते, उसे याद कर लिया करते थे. तिवारी जी इस सवाल के जवाब में राधा नाम के परिचित लोगों के नाम गिनाने लगे और यह भी बता गए कि भगवान कृष्ण वाली राधा को तो सारी दुनिया जानती है.

जब पूछा गया कि क्या आरोप लगने के बाद आप दबाव में इस्तीफा देकर हड़बड़ी में बिना औपचारिक विदाई समारोह के नहीं चल दिए तो उन्होंने कहा कि उनकी विदाई हुई और उनके पास उस विदाई की तस्वीर भी है. तस्वीर के तौर पर उन्होंने तिरुपति बालाजी की एक फ्रेम की हुई छोटी मूर्ति दिखाई जिसे उन्हें आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आने से पहले भेंट की. विदाई समारोह की तस्वीर नहीं थी, विदाई के दौरान दी गई एक भेंट थी.

मामला सामने आने के बाद उनके वकील ने कहा था कि वो उस चैनल पर मानहानि का मुकदमा करेंगे जिसने यह वीडियो दिखाया है. लेकिन तिवारी जी पलट गए. बोले, मैंने कभी नहीं कहा कि मुकदमा करेंगे. इसी तरह इस स्कैंडल के सामने आने के कारणों को उन्होंने प्रेस के सामने एक बार राजनीतिक साजिश और खासकर तेलंगाना के कारण की गई साजिश करार दिया था. स्टार न्यूज पर इंटरव्यू में तिवारी जी इससे भी पलट गए. बोले, मैंने कभी नहीं कहा कि कोई साजिश है.

अब वो सिर्फ यही कह रहे हैं कि उन्होंने स्वास्थ्य के कारण इस्तीफा दिया है. स्कैंडल जैसी बातों के कारण नहीं. वैसे याद रखने वाली बात ये है कि तिवारी जी ने स्वास्थ्य कारणों पर इस्तीफे का बयान जारी किया तो उसी दिन दिल्ली में कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि तिवारी जी ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया है. तिवारी जी के स्वास्थ्य की खराबी में कांग्रेसी नैतिकता क्यों टांग अड़ा रही हैं. एक मजाकिया पत्रकार ने मुझसे कहा कि तिवारी जी के स्वास्थ्य और कांग्रेस की नैतिकता को जोड़ दीजिए, दोनों में कोई टकराव नहीं है, दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक हैं. तिवारी जी ने स्वास्थ्यगत नैतिकता के आधार पर पद छोड़ दिया है.

उनके पूरे इंटरव्यू में उनके सभी जवाब का एकतरफा या दोतरफा विश्लेषण करने के बाद यह समझ में आता है कि कांग्रेस ने कहा होगा कि बाबा, अब आराम करने का वक्त आ गया है. सम्मानजनक तरीके से पदत्याग करके लौट आइए और चुपचाप मुद्दे को ठंडा होने दीजिए. लगता है तिवारी जी ने बदले में मामले की आंच से खुद को बचाने का आश्वासन भी लिया है. तभी तो एक तरफ रूचिका मामले में पुलिस वाले शिकायत को एफआईआर के रूप में फटाफट ले रहे हैं तो दूसरी तरफ हैदराबाद में महिला संगठनों और एक वकील की शिकायत अभी तक एफआईआर के रूप में दर्ज नहीं हो पा रही है. ये शिकायतें अनैतिक मानव व्यापार, बलात्कार और महिला से दुर्व्यवहार की धाराओं के तहत की गई हैं.

शिकायत ने प्राथमिकी की शक्ल ले ली तो तिवारी जी को शायद कोर्ट वाले अग्रिम जमानत भी न दे पाएं क्योंकि महिला से बलात्कार की भी धारा लगाने की अपील पुलिस वालों से की गई है. इन शिकायतों का क्या किया जाए, इस पर आंध्र प्रदेश पुलिस कानूनी सलाह ले रही है. हैदराबाद से तिवारी जी के निकल जाने के बाद विरोध के स्वर थम गए हैं, प्रदर्शनों का सिलसिला खत्म हो गया है. पुलिस वाले कुछ दिन और कानूनी सलाह लेने में काट लें तो हो सकता है कि कोई पूछने भी न जाए और जाए तो किसी को पता भी नहीं चल पाए कि इस पर हुआ क्या. कांग्रेस की राज्य में सरकार होने का इतना फायदा तो तिवारी जी को मिल ही सकता है. और इस फायदे के एवज में अगर तिवारी जी वीडियो से जुड़े हर सवाल का ऐसा जवाब दें जिसका कोई मतलब न निकलें, राजनीतिक साजिश के आरोप को डकार जाएं और चैनल पर मानहानि का मुकदमा भी न करें तो कांग्रेस को क्या एतराज हो सकता है.

Monday, December 28, 2009

क्या नितिन गडकरी बीजेपी के अवैध अध्यक्ष हैं ?

नितिन गडकरी बीजेपी के नए अध्यक्ष बने हैं. पद पर इस तरह से पहुंचे हैं कि लगता है मनोनीत हुए हैं. कोई चुनाव नहीं हुआ यह तो साफ है. जो बात समझ में नहीं आ रही वो यह है कि खुद को कार्यकर्ता और कार्यकर्ताओं की पार्टी कहने वाली बीजेपी तीन साल के लिए किसी भी नेता को अपना अध्यक्ष कैसे मनोनीत कर सकती है.
 
ऐसा नहीं है कि पहले के अध्यक्ष इस्तीफा देकर चले गए थे और पार्टी को कुछ महीनों के लिए एक कार्यकारी अध्यक्ष की जरूरत थी. पूरे तीन साल का कार्यकाल गडकरी को मिला है. आखिर यह तोहफा किस प्रक्रिया के तहत दिया गया है.
 
अगर आरएसएस ने कहा कि नितिन गडकरी को अध्यक्ष बना दो तो बीजेपी का अध्यक्ष चुनने वाला आरएसएस होता कौन है. और है तो खुलकर बताने में लाज-शर्म क्यों है कि बीजेपी का अध्यक्ष वही होगा जिसे संघ चाहेगा.
 
अगर संसदीय बोर्ड की बैठक में नितिन गडकरी को अध्यक्ष चुना गया तो यह अधिकार पार्टी के संसदीय बोर्ड को किस बीजेपी के संविधान से मिला कि दर्जन भर लोग लाखों कार्यकर्ताओं की पार्टी का नेता चुन लें. बोर्ड ने यह ताकत खुद से विकसित कर ली है तो क्या गडकरी के अलावा किसी और नाम पर भी विचार हुआ था. नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ. क्या बोर्ड में गडकरी के नाम पर किसी ने कोई आपत्ति जाहिर की, नहीं की तो क्यों नहीं की. अगर संसदीय बोर्ड ने पार्टी संविधान के दायरे से बाहर जाकर ऐसा किया तो किसके इशारे पर किया. क्या बोर्ड की बैठक में सिर्फ गडकरी के अगले अध्यक्ष होने का फैसला सुनाया गया. विचार वगैरह पहले ही कर लिया गया था.
 
पार्टी की वेबसाइट पर अंग्रेजी में पार्टी का संविधान है. उसके अनुच्छेद 19 में पार्टी के अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से लिखी हुई है. छोटा सा प्रावधान है. उसका पूरा अनुवाद कुछ इस तरह है.
 
अनुच्छेद-19/ राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव
 
1. राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव (अ) राष्ट्रीय परिषद के सदस्य (ब) राज्य परिषद के सदस्य की निर्वाचक मंडली करेगी.
 
2. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के द्वारा तैयार नियमों के दायरे में अध्यक्ष का चुनाव कराया जाएगा.
 
3. किसी भी राज्य के 20 ऐसे सदस्य जो निर्वाचक मंडली के सदस्य हों, पार्टी अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार का नाम प्रस्तावित कर सकते हैं. नाम ऐसे आदमी का बढ़ाया जाए जो चार दफा सक्रिय सदस्य रह चुका हो और उसे पार्टी का सदस्य बने 15 साल पूरे हो गए हों. लेकिन इस तरह की उम्मीदवार पर विचार हो इसके लिए ऐसे प्रस्ताव का कम से कम पांच राज्यों से आना जरूरी होगा और उन राज्यों से जहां राष्ट्रीय परिषद के चुनाव करा लिए गए हों. उम्मीदवार की सहमति जरूरी होगी.
 
साभार- बीजेपी का संविधान, बीजेपी की वेबसाइट से
 
इसी साइट पर बीजेपी संसदीय बोर्ड के स्वरूप और उसकी ताकत और उसकी सीमाओं पर अनुच्छेद 25 है. उसका अनुवाद इस तरह है.
 
अनुच्छेद-25/ संसदीय बोर्ड
 
राष्ट्रीय कार्यकारिणी एक संसदीय बोर्ड का गठन करेगी जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा 10 और सदस्य होंगे. इन 10 सदस्यों में एक संसद में पार्टी का नेता होगा और पार्टी के अध्यक्ष बोर्ड के चेयरमैन होंगे. पार्टी के एक महासचिव को बोर्ड का महासचिव नियुक्त किया जाएगा.
 
संसदीय बोर्ड के पास पार्टी के संसदीय और विधानमंडल दलों की निगरानी और उनको निर्देशित करने का अधिकार होगा. संसदीय बोर्ड के पास मंत्रालयों के गठन में मार्गदर्शन का अधिकार होगा. इसके पास संसदीय या विधानमंडल दल के सदस्यों या पार्टी की राज्य इकाई के पदाधिकारियों द्वारा अनुशासन भंग करने के मामले पर संज्ञान लेने और उस पर समुचित कार्रवाई करने का अधिकार होगा. बोर्ड के पास वैसे नीतिगत मामले जिन्हें पार्टी ने स्वीकार न किया हो, उस पर विचार करने और फैसला करने का अधिकार होगा. वो चाहे तो नीतियों में बदलाव भी कर सकती है. बोर्ड के पास राष्ट्रीय कार्यकारिणी से नीचे तमाम सांगठनिक इकाइयों के मार्गदर्शन और निर्देशन का अधिकार होगा. बोर्ड के फैसलों का राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 21 दिनों के अंदर विशेष बैठक बुलाकर अनुमोदन होगा.
 
साभार- बीजेपी का संविधान, बीजेपी की वेबसाइट से
 
बीजेपी के संविधान में अध्यक्ष पद के चुनाव के ऊपर बस इतना ही लिखा गया है. तीन बिन्दु हैं. पहला बताता है कि अध्यक्ष कौन चुनेगा. दूसरा है जो बताता है कि अध्यक्ष चुनाव के कायदे-कानून कौन तय करेगा और तीसरा है जो बताता है कि अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी का रास्ता कहां से गुजरता है.
 
नितिन गडकरी के चुनाव में बीजेपी ने किस नियम का पालन किया है, यह समझ में हीं नहीं आ रहा. कांग्रेस, आरजेडी, एआईएडीएमके, डीएमके, एलजेपी, बीएसपी या तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों से बीजेपी खुद को इस रूप में अलग बताती है और यह गडकरी के अध्यक्ष बनने से भी साबित हुआ है कि इस पार्टी में आम कार्यकर्ता या नेता भी अध्यक्ष बन सकता है. कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद के लोग अध्यक्ष पद के नीचे के तमाम पदों तक पहुंचने की हसरत रखते हैं और उनकी राजनीति की सीमा महासचिव के पद पर खत्म हो जाती है. लेकिन बीजेपी के सामने कौन सी ऐसी मुसीबत थी कि उसे कार्यकर्ताओं की राय लिए बगैर अपना पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनना पड़े या मनोनयन पर हामी भरनी पड़े.
 
बीजेपी के इस बुरे दौर में पार्टी के कार्यकर्ताओं और सदस्यों से चुने अध्यक्ष की ज्यादा जरूरत थी. एक ऐसा अध्यक्ष जो पूरे देश के चुने हुए बीजेपी नेताओं के वोट से अध्यक्ष बनता, उसमें कार्यकर्ताओं और समर्थक वोटरों की ज्यादा निष्ठा जगती. राजनाथ सिंह को भी तो संघ ही लाया था. क्या हुआ पार्टी का और क्या हुआ गुटबाजी का. इसका जवाब न तो संघ के पास है और न कोई उससे पूछने की जहमत ही उठा रहा है. संघ को ये दूसरा मौका क्यों दिया गया कि अगले तीन साल पार्टी की और बाट लगा लो.
 
राष्ट्रीय परिषद और राज्य परिषद के सदस्य अध्यक्ष चुनते. जोशी, जेटली, स्वराज, रमण, मोदी, शिवराज या ऐसा कोई और भी नेता जिसे लगता था कि वो अध्यक्ष बन सकता है और पार्टी को आगे ले जा सकता है, उसे उम्मीदवार बनने का मौका दिया जाता. दिल्ली में बैठे नेताओं ने नागपुर के इशारे पर पूरे देश के बीजेपी कार्यकर्ताओं की आवाज को दबा दिया. हो सकता है कि ये आवाज गडकरी के ही पक्ष में उठती लेकिन तब गडकरी के अध्यक्ष बनने का जश्न और जोश दिल्ली से गुवाहाटी तक जाता. पार्टी के लोग अध्यक्ष से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते. उन्हें लगता कि इसे तो हमने चुना है.
 
कई राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव तक नहीं हुआ है. कई राज्यों में वो वोटर तय नहीं हो पाए थे जिन्हें अध्यक्ष चुनने की शक्ति मिलती. बिना मतदाता सूची बनाए कैसा चुनाव. यह चुनाव तो धोखा है. पार्टी के साथ, पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ और उसे समर्थक वोटरों के साथ. इसलिए इस बार पटना-लखनऊ में पटाखे भी नहीं फूट पाए. सिर्फ नागपुर और मुंबई के जश्न से बीजेपी कैसे आगे बढ़ेगी. राष्ट्रीय परिषद और राज्य परिषद के सदस्यों के वोट या राय के बगैर अध्यक्ष चुनना मेरे विचार से ऐसा ही है जैसे कि बगैर चुनाव कराए चुनाव आयोग देश के प्रधानमंत्री के पद पर किसी को बिठा दे.