Thursday, December 31, 2009

क्या एनडी तिवारी की बोलती कांग्रेस ने बंद की?

एनडी तिवारी आंध्र प्रदेश के राज्यपाल पद से विदा होने के बाद से उत्तराखंड में जमे हुए हैं. बुधवार को उन्होंने स्टार न्यूज को एक इंटरव्यू दिया लेकिन इंटरव्यू में ऐसे एक भी सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया जो जवाब लोग जानना चाहते हैं. सवाल जब बार-बार पूछे गए तो वो उठकर चले गए. पूरे इंटरव्यू को देखने और तिवारी जी के जवाब से बिना कहे यह बात उभर कर आती है कि कांग्रेस पार्टी ने उनसे कह दिया है कि मुंह बंद रखिए. बवाल खत्म करने के लिए बवाल को बढ़ाना सही नहीं रहेगा.

उनसे जब यह पूछा गया कि वो उस टेप में हैं या नहीं जिसको लेकर मचे बवाल के बाद उन्होंने स्वास्थ्य कारणों पर पद छोड़ने की घोषणा की. जवाब में उन्होंने न हां कहा और न ना कहा. बोले कि मेरी तस्वीर तो आजादी के समय से है. अंग्रेजों के पास थी. मेरी तस्वीरें तो बिखरी हुई हैं. बॉलीवुड, हॉलीवुड और रामोजी फिल्म सिटी में बहुत कुछ होता है. उन्होंने सीधे नहीं कहा कि तस्वीर उनकी है और वो यह कहना चाहते हैं कि उनकी तस्वीर को तकनीक के सहारे नंगी-अधनंगी लड़कियों के साथ चिपका दिया गया है. लेकिन उनका जवाब जो था, वो यही कहना चाहता था. इस जवाब को सुनकर लगता है कि सचमुच वो मंजे हुए राजनेता हैं. सीधे सवाल का भी जवाब टालना उन्हें बखूबी आता है.

उनसे जब पूछा गया कि राधिका नाम की औरत ने कहा है कि उसे राजभवन के एक अधिकारी ने खदान दिलाने का आश्वासन दिया था और तभी उसने लड़कियां भेजी थीं. तिवारी जी ने कहा कि वो राधिका को नहीं जानते. राधिका ने कभी नहीं कहा कि वो नारायण दत्त तिवारी को जानती है. उसने तो बस यही कहा था कि राजभवन के एक अधिकारी के जरिए वो दिन-रात जब भी जरूरत महसूस करते, उसे याद कर लिया करते थे. तिवारी जी इस सवाल के जवाब में राधा नाम के परिचित लोगों के नाम गिनाने लगे और यह भी बता गए कि भगवान कृष्ण वाली राधा को तो सारी दुनिया जानती है.

जब पूछा गया कि क्या आरोप लगने के बाद आप दबाव में इस्तीफा देकर हड़बड़ी में बिना औपचारिक विदाई समारोह के नहीं चल दिए तो उन्होंने कहा कि उनकी विदाई हुई और उनके पास उस विदाई की तस्वीर भी है. तस्वीर के तौर पर उन्होंने तिरुपति बालाजी की एक फ्रेम की हुई छोटी मूर्ति दिखाई जिसे उन्हें आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आने से पहले भेंट की. विदाई समारोह की तस्वीर नहीं थी, विदाई के दौरान दी गई एक भेंट थी.

मामला सामने आने के बाद उनके वकील ने कहा था कि वो उस चैनल पर मानहानि का मुकदमा करेंगे जिसने यह वीडियो दिखाया है. लेकिन तिवारी जी पलट गए. बोले, मैंने कभी नहीं कहा कि मुकदमा करेंगे. इसी तरह इस स्कैंडल के सामने आने के कारणों को उन्होंने प्रेस के सामने एक बार राजनीतिक साजिश और खासकर तेलंगाना के कारण की गई साजिश करार दिया था. स्टार न्यूज पर इंटरव्यू में तिवारी जी इससे भी पलट गए. बोले, मैंने कभी नहीं कहा कि कोई साजिश है.

अब वो सिर्फ यही कह रहे हैं कि उन्होंने स्वास्थ्य के कारण इस्तीफा दिया है. स्कैंडल जैसी बातों के कारण नहीं. वैसे याद रखने वाली बात ये है कि तिवारी जी ने स्वास्थ्य कारणों पर इस्तीफे का बयान जारी किया तो उसी दिन दिल्ली में कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि तिवारी जी ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया है. तिवारी जी के स्वास्थ्य की खराबी में कांग्रेसी नैतिकता क्यों टांग अड़ा रही हैं. एक मजाकिया पत्रकार ने मुझसे कहा कि तिवारी जी के स्वास्थ्य और कांग्रेस की नैतिकता को जोड़ दीजिए, दोनों में कोई टकराव नहीं है, दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक हैं. तिवारी जी ने स्वास्थ्यगत नैतिकता के आधार पर पद छोड़ दिया है.

उनके पूरे इंटरव्यू में उनके सभी जवाब का एकतरफा या दोतरफा विश्लेषण करने के बाद यह समझ में आता है कि कांग्रेस ने कहा होगा कि बाबा, अब आराम करने का वक्त आ गया है. सम्मानजनक तरीके से पदत्याग करके लौट आइए और चुपचाप मुद्दे को ठंडा होने दीजिए. लगता है तिवारी जी ने बदले में मामले की आंच से खुद को बचाने का आश्वासन भी लिया है. तभी तो एक तरफ रूचिका मामले में पुलिस वाले शिकायत को एफआईआर के रूप में फटाफट ले रहे हैं तो दूसरी तरफ हैदराबाद में महिला संगठनों और एक वकील की शिकायत अभी तक एफआईआर के रूप में दर्ज नहीं हो पा रही है. ये शिकायतें अनैतिक मानव व्यापार, बलात्कार और महिला से दुर्व्यवहार की धाराओं के तहत की गई हैं.

शिकायत ने प्राथमिकी की शक्ल ले ली तो तिवारी जी को शायद कोर्ट वाले अग्रिम जमानत भी न दे पाएं क्योंकि महिला से बलात्कार की भी धारा लगाने की अपील पुलिस वालों से की गई है. इन शिकायतों का क्या किया जाए, इस पर आंध्र प्रदेश पुलिस कानूनी सलाह ले रही है. हैदराबाद से तिवारी जी के निकल जाने के बाद विरोध के स्वर थम गए हैं, प्रदर्शनों का सिलसिला खत्म हो गया है. पुलिस वाले कुछ दिन और कानूनी सलाह लेने में काट लें तो हो सकता है कि कोई पूछने भी न जाए और जाए तो किसी को पता भी नहीं चल पाए कि इस पर हुआ क्या. कांग्रेस की राज्य में सरकार होने का इतना फायदा तो तिवारी जी को मिल ही सकता है. और इस फायदे के एवज में अगर तिवारी जी वीडियो से जुड़े हर सवाल का ऐसा जवाब दें जिसका कोई मतलब न निकलें, राजनीतिक साजिश के आरोप को डकार जाएं और चैनल पर मानहानि का मुकदमा भी न करें तो कांग्रेस को क्या एतराज हो सकता है.

Monday, December 28, 2009

क्या नितिन गडकरी बीजेपी के अवैध अध्यक्ष हैं ?

नितिन गडकरी बीजेपी के नए अध्यक्ष बने हैं. पद पर इस तरह से पहुंचे हैं कि लगता है मनोनीत हुए हैं. कोई चुनाव नहीं हुआ यह तो साफ है. जो बात समझ में नहीं आ रही वो यह है कि खुद को कार्यकर्ता और कार्यकर्ताओं की पार्टी कहने वाली बीजेपी तीन साल के लिए किसी भी नेता को अपना अध्यक्ष कैसे मनोनीत कर सकती है.
 
ऐसा नहीं है कि पहले के अध्यक्ष इस्तीफा देकर चले गए थे और पार्टी को कुछ महीनों के लिए एक कार्यकारी अध्यक्ष की जरूरत थी. पूरे तीन साल का कार्यकाल गडकरी को मिला है. आखिर यह तोहफा किस प्रक्रिया के तहत दिया गया है.
 
अगर आरएसएस ने कहा कि नितिन गडकरी को अध्यक्ष बना दो तो बीजेपी का अध्यक्ष चुनने वाला आरएसएस होता कौन है. और है तो खुलकर बताने में लाज-शर्म क्यों है कि बीजेपी का अध्यक्ष वही होगा जिसे संघ चाहेगा.
 
अगर संसदीय बोर्ड की बैठक में नितिन गडकरी को अध्यक्ष चुना गया तो यह अधिकार पार्टी के संसदीय बोर्ड को किस बीजेपी के संविधान से मिला कि दर्जन भर लोग लाखों कार्यकर्ताओं की पार्टी का नेता चुन लें. बोर्ड ने यह ताकत खुद से विकसित कर ली है तो क्या गडकरी के अलावा किसी और नाम पर भी विचार हुआ था. नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ. क्या बोर्ड में गडकरी के नाम पर किसी ने कोई आपत्ति जाहिर की, नहीं की तो क्यों नहीं की. अगर संसदीय बोर्ड ने पार्टी संविधान के दायरे से बाहर जाकर ऐसा किया तो किसके इशारे पर किया. क्या बोर्ड की बैठक में सिर्फ गडकरी के अगले अध्यक्ष होने का फैसला सुनाया गया. विचार वगैरह पहले ही कर लिया गया था.
 
पार्टी की वेबसाइट पर अंग्रेजी में पार्टी का संविधान है. उसके अनुच्छेद 19 में पार्टी के अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से लिखी हुई है. छोटा सा प्रावधान है. उसका पूरा अनुवाद कुछ इस तरह है.
 
अनुच्छेद-19/ राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव
 
1. राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव (अ) राष्ट्रीय परिषद के सदस्य (ब) राज्य परिषद के सदस्य की निर्वाचक मंडली करेगी.
 
2. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के द्वारा तैयार नियमों के दायरे में अध्यक्ष का चुनाव कराया जाएगा.
 
3. किसी भी राज्य के 20 ऐसे सदस्य जो निर्वाचक मंडली के सदस्य हों, पार्टी अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार का नाम प्रस्तावित कर सकते हैं. नाम ऐसे आदमी का बढ़ाया जाए जो चार दफा सक्रिय सदस्य रह चुका हो और उसे पार्टी का सदस्य बने 15 साल पूरे हो गए हों. लेकिन इस तरह की उम्मीदवार पर विचार हो इसके लिए ऐसे प्रस्ताव का कम से कम पांच राज्यों से आना जरूरी होगा और उन राज्यों से जहां राष्ट्रीय परिषद के चुनाव करा लिए गए हों. उम्मीदवार की सहमति जरूरी होगी.
 
साभार- बीजेपी का संविधान, बीजेपी की वेबसाइट से
 
इसी साइट पर बीजेपी संसदीय बोर्ड के स्वरूप और उसकी ताकत और उसकी सीमाओं पर अनुच्छेद 25 है. उसका अनुवाद इस तरह है.
 
अनुच्छेद-25/ संसदीय बोर्ड
 
राष्ट्रीय कार्यकारिणी एक संसदीय बोर्ड का गठन करेगी जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा 10 और सदस्य होंगे. इन 10 सदस्यों में एक संसद में पार्टी का नेता होगा और पार्टी के अध्यक्ष बोर्ड के चेयरमैन होंगे. पार्टी के एक महासचिव को बोर्ड का महासचिव नियुक्त किया जाएगा.
 
संसदीय बोर्ड के पास पार्टी के संसदीय और विधानमंडल दलों की निगरानी और उनको निर्देशित करने का अधिकार होगा. संसदीय बोर्ड के पास मंत्रालयों के गठन में मार्गदर्शन का अधिकार होगा. इसके पास संसदीय या विधानमंडल दल के सदस्यों या पार्टी की राज्य इकाई के पदाधिकारियों द्वारा अनुशासन भंग करने के मामले पर संज्ञान लेने और उस पर समुचित कार्रवाई करने का अधिकार होगा. बोर्ड के पास वैसे नीतिगत मामले जिन्हें पार्टी ने स्वीकार न किया हो, उस पर विचार करने और फैसला करने का अधिकार होगा. वो चाहे तो नीतियों में बदलाव भी कर सकती है. बोर्ड के पास राष्ट्रीय कार्यकारिणी से नीचे तमाम सांगठनिक इकाइयों के मार्गदर्शन और निर्देशन का अधिकार होगा. बोर्ड के फैसलों का राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 21 दिनों के अंदर विशेष बैठक बुलाकर अनुमोदन होगा.
 
साभार- बीजेपी का संविधान, बीजेपी की वेबसाइट से
 
बीजेपी के संविधान में अध्यक्ष पद के चुनाव के ऊपर बस इतना ही लिखा गया है. तीन बिन्दु हैं. पहला बताता है कि अध्यक्ष कौन चुनेगा. दूसरा है जो बताता है कि अध्यक्ष चुनाव के कायदे-कानून कौन तय करेगा और तीसरा है जो बताता है कि अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी का रास्ता कहां से गुजरता है.
 
नितिन गडकरी के चुनाव में बीजेपी ने किस नियम का पालन किया है, यह समझ में हीं नहीं आ रहा. कांग्रेस, आरजेडी, एआईएडीएमके, डीएमके, एलजेपी, बीएसपी या तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों से बीजेपी खुद को इस रूप में अलग बताती है और यह गडकरी के अध्यक्ष बनने से भी साबित हुआ है कि इस पार्टी में आम कार्यकर्ता या नेता भी अध्यक्ष बन सकता है. कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद के लोग अध्यक्ष पद के नीचे के तमाम पदों तक पहुंचने की हसरत रखते हैं और उनकी राजनीति की सीमा महासचिव के पद पर खत्म हो जाती है. लेकिन बीजेपी के सामने कौन सी ऐसी मुसीबत थी कि उसे कार्यकर्ताओं की राय लिए बगैर अपना पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनना पड़े या मनोनयन पर हामी भरनी पड़े.
 
बीजेपी के इस बुरे दौर में पार्टी के कार्यकर्ताओं और सदस्यों से चुने अध्यक्ष की ज्यादा जरूरत थी. एक ऐसा अध्यक्ष जो पूरे देश के चुने हुए बीजेपी नेताओं के वोट से अध्यक्ष बनता, उसमें कार्यकर्ताओं और समर्थक वोटरों की ज्यादा निष्ठा जगती. राजनाथ सिंह को भी तो संघ ही लाया था. क्या हुआ पार्टी का और क्या हुआ गुटबाजी का. इसका जवाब न तो संघ के पास है और न कोई उससे पूछने की जहमत ही उठा रहा है. संघ को ये दूसरा मौका क्यों दिया गया कि अगले तीन साल पार्टी की और बाट लगा लो.
 
राष्ट्रीय परिषद और राज्य परिषद के सदस्य अध्यक्ष चुनते. जोशी, जेटली, स्वराज, रमण, मोदी, शिवराज या ऐसा कोई और भी नेता जिसे लगता था कि वो अध्यक्ष बन सकता है और पार्टी को आगे ले जा सकता है, उसे उम्मीदवार बनने का मौका दिया जाता. दिल्ली में बैठे नेताओं ने नागपुर के इशारे पर पूरे देश के बीजेपी कार्यकर्ताओं की आवाज को दबा दिया. हो सकता है कि ये आवाज गडकरी के ही पक्ष में उठती लेकिन तब गडकरी के अध्यक्ष बनने का जश्न और जोश दिल्ली से गुवाहाटी तक जाता. पार्टी के लोग अध्यक्ष से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते. उन्हें लगता कि इसे तो हमने चुना है.
 
कई राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव तक नहीं हुआ है. कई राज्यों में वो वोटर तय नहीं हो पाए थे जिन्हें अध्यक्ष चुनने की शक्ति मिलती. बिना मतदाता सूची बनाए कैसा चुनाव. यह चुनाव तो धोखा है. पार्टी के साथ, पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ और उसे समर्थक वोटरों के साथ. इसलिए इस बार पटना-लखनऊ में पटाखे भी नहीं फूट पाए. सिर्फ नागपुर और मुंबई के जश्न से बीजेपी कैसे आगे बढ़ेगी. राष्ट्रीय परिषद और राज्य परिषद के सदस्यों के वोट या राय के बगैर अध्यक्ष चुनना मेरे विचार से ऐसा ही है जैसे कि बगैर चुनाव कराए चुनाव आयोग देश के प्रधानमंत्री के पद पर किसी को बिठा दे.