Sunday, April 18, 2010

जंतर-मंतर के बाद क्या ...

दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ जवानों की नक्सलियों के हाथों शहादत के बाद से सरकार, मीडिया और बैंक बैलेंस रखने वाला मध्य वर्ग इस बात की जोर-शोर से वकालत कर रहा है कि माओवादियों को जड़-धड़ और सर तीनों से कलम कर देना ही भारत के लिए बेहतर है. इस काम में थल सेना और वायुसेना की सीमित (सीमा सरकार तय करेगी) सहायता का विचार सरकार के स्तर पर चल रहा है, बीजेपी ने पहले ही बिना शर्त समर्थन दे दिया है और बंगाल की चोट से तिलमिलाए कॉमरेड भी कह रहे हैं कि नक्सल हिंसा को रोकना तो पड़ेगा ही. पर रोकें कैसे, इस पर सरकार, कांग्रेस, वामदल सबके अंदर मतभेद हैं.

 

कोई इसे पूरी तरह विधि व्यवस्था का सवाल बता कर पिला हुआ है तो कोई कहता है कि समस्या को समग्र तरीके से देखना चाहिए और नक्सल विरोधी अभियान के साथ ही नक्सलियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से साथ दे रहे लोगों का दिल जीतना चाहिए. कुछ काम करना चाहिए जिससे नक्सलियों के हमदर्द और सिपाही बनकर मां, बाप, बीवी और बच्चों को छोड़कर जंगलों में भटक रहे लोगों को लगे कि सरकार उनके लिए सोच रही है, कुछ कर रही है. इस भरोसे की कमी से मामला हाथ से बाहर होता दिखता है या हो चुका है.

 

इस बार सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए हैं तो जाहिर है अगला निशाना नक्सली बनेंगे और दर्जन-आधा दर्जन लोग मार गिराए जाएंगे. जो मारा जाएगा, वो नक्सली होगा जो बच जाएगा वो गरीब होगा या आदिवासी. फिर उसका जवाब नक्सली लैंडमाइन लगाकर या कैंप पर हमला करके देंगे. ये अंडरवर्ल्ड की लड़ाई की तरह है. जिसे मौका मिलेगा, धड़धड़ा देगा. जो गिरा वो शहीद जो बचा वो बहादुर. अभी जनगणना का काम शुरू हुआ है, इनकी गिनती भी नहीं होगी क्योंकि ये किसी को मिलेंगे नहीं. अगर मिल गए तो जनगणना अधिकारी पहचान नहीं पाएंगे कि ये नक्सली है या आम नागरिक क्योंकि सारे नक्सली भी भारतीय नागरिक हैं. इसलिए पश्चिमी मीडिया इसे सिविल वार भी कहता है.

 

इसी धंधे में हूं इसलिए जानता हूं कि इराक पर हमले के लिए रासायनिक और जैविक हथियारों की जॉर्ज बुश की गल्पकथा का भंडाफोड़ भी उन्हीं के मीडिया वालों ने किया था. अमेरिका और ब्रिटेन की पत्रकारिता ने दुनिया को हमेशा कुछ करके दिखाया है. भारत के समाचार संगठन आर्थिक उदारीकरण के बाद से विज्ञापन के ऐसे नचनिया हो गए हैं कि कोई भी अपनी जगह और अपने तरीके से उनसे मुजरा करवा सकता है. यहां तो ऐसे ओजस्वी पत्रकार पाए जाते हैं जो पाकिस्तान पर हमला करने का दबाव बनाते हैं, नक्सलियों को आतंकवादी कहते हैं. मुझे तो ये सोचकर डर लगता है कि अगर ऐसे
लोग देश के रक्षा मंत्री होते तो मुंबई हमले की सुबह ही शायद दोनों देशों के 30-40 करोड़ लोग भी निपट गए होते. आजकल वो गृहमंत्री बनने की कोशिश कर रहे हैं. असल में चिदंबरम और उनकी बोली बोल रहे संपादकों में जो ठसक है वो उनकी क्लास है. गरीब लोगों की और हिन्दी या दूसरे क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों की कोई क्लास नहीं होती. ये लड़ाई क्लासिक और क्लासलेस लोगों की भी लड़ाई है.

 

हो सकता है कि नक्सली दिन घर में बिताते हों और रात में हथियार उठाकर हमला करते हों. ये भी हो सकता है कि वो रात में घर पर रहते हों और दिन में जंगलों में ट्रेनिंग लेते हों. हो तो ये भी सकता है कि ये दिन में शहर में काम करते हों और रात में नक्सली बन जाते हों. इन्हें पहचानना सबसे बड़ा काम है और ये काम इतना बड़ा है कि पूरी की पूरी सेना भी दंतेवाड़ा में उतर जाए तो भी चूने की लाइन के इस पार और उस पार लोगों को खड़ा करके बताना मुश्किल होगा कि ये नक्सली हैं और ये नहीं हैं. नक्सल विरोधी अभियान की नाकामी का सबसे बड़ा कारण यही है कि नक्सली भी इसी देश के लोग हैं जो आम लोगों की तरह लुंगी, पैंट पहनते हैं. सीआरपीएफ के जवानों की तरह वर्दी नहीं पहनते. इसलिए सीआरपीएफ की टुकड़ी को निशाना बनाना आसान है, नक्सलियों के जत्थे को मुश्किल.

 

खैर, गरीबों के एक समूह की चिंता यह है कि अगर उसे उसका पंचायत सचिव या मुखिया बीपीएल कार्ड या राशन कार्ड नहीं देता है तो वो क्या करेगा. बीडीओ के पास जाएगा, एक आवेदन देगा. बीडीओ ने कुछ न किया तो एसडीओ के पास जाएगा. उसने भी कुछ न किया तो जिला आपूर्ति पदाधिकारी के पास जाएगा. वहां भी सुनवाई न हो तो जिलाधिकारी के पास जाएगा. आयुक्त, आपूर्ति सचिव, मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री के रास्ते वो जंतर-मंतर तक पहुंच जाएगा. यहां धरना देगा, प्रदर्शन करेगा. लेकिन यहां प्रधानमंत्री ने नहीं सुनी तो क्या करेगा. जंतर-मंतर के बाद क्या करने के विकल्प उसके पास हैं. इसके बाद वो लौट जाएगा या वहीं आत्मदाह कर लेगा. खुद के सिर पर पिस्तौल सटाकर मारना कितना मुश्किल होता है, ये जिसने खुदकुशी की होगी या ऐसा करने की कोशिश की होगी, वही जानता होगा. गांव लौट जाना और पंचायत सचिव का खून कर देना आत्मदाह करने से ज्यादा बेहतर विकल्प है. ये गैर-कानूनी है, अवैध है लेकिन उपलब्ध विकल्पों में सबसे बेहतर है.

 

मीडिया में जब पिछले साल लोगों को नौकरी से मंदी के नाम पर निकाला जा रहा था तो लोग यूनियन, श्रम कानून की बात कर रहे थे. ये वही लोग थे जो कर्मचारी संगठनों की हड़ताल को देश और देश की जनता के खिलाफ बताते नहीं अघाते थे. खुद पर पड़ी तो कर्मचारी का अधिकार याद आने लगा. छठा वेतन आयोग कब की सिफारिश दे चुका है. लेकिन हर राज्य में सरकार कर्मचारियों के प्रदर्शन, उनकी रैलियों और हड़ताल के बाद ही उसका लाभ दे रही हैं. लेकिन सरकार रैली, प्रदर्शन के बावजूद अड़ जाए कि नहीं देंगे तो क्या करेंगे. फिर जंतर-मंतर पहुंचेंगे और वहां मांग न सुनी गई तो....?

 

असल में सबसे बड़ी साजिश यही है कि विरोध का तरीका क्या होगा और विरोध की सीमा क्या होगी, ये भी सरकार ने तय किया है जिसके खिलाफ एक तरह की समस्या से परेशान लोग एकजुट होते हैं. जंतर-मंतर पर आपके स्वागत में पानी से हमला करने वाला दस्ता, लाठियां बरसाने वाला दस्ता, गोलियां चलाने वाला दस्ता तैनात रहता है. ये दस्ता बिना कुछ बोले बोलता रहता है कि संसद पर प्रदर्शन का मतलब संसद में घुस जाना नहीं है, बस संसद से दूर यहीं तक तुम्हें रुकना है. इसके आगे बढ़ने की कोशिश की तो हम तैयार हैं. अगर वहां गोली चल जाए, पत्थर चल जाए और दोनों तरफ के 10-10 लोग मारे जाएं तो किसे शहादत कहेंगे और किसे मौत. यही फर्क है सीआरपीएफ के लोगों की शहादत और नक्सलियों की मौत में. सरकार ने खुद के खिलाफ आंदोलन की बातचीत का अधिकार अपने ही पास रखा है. ये अधिकार कोर्ट को दे दो. जिसे केंद्र सरकार से मांग करने के छह महीने के अंदर जवाब या कार्यवाही न दिखे, वो इस कोर्ट की शरण में जाए. रास्ता तो बताओ कि अगर किसी इलाके के लोगों को सरकार के किसी फैसले से दिक्कत है तो वो अपनी बात मनवाने के लिए सरकार के ऊपर कहां तक जा सकते हैं. और अगर रास्ता नहीं है तो बांध कहीं से भी टूट सकता है. बांध का टूटना हमेशा गलत ही होता है लेकिन सच तो यही होता है कि धार को जगह नहीं मिली तो उसने जगह बना ली.

 

मध्यम वर्ग हर साल उम्मीद करता है कि आम बजट में कर में छूट दी जाएगी, कर रियायत का दायरा बढ़ाया जाएगा. हम खाते-कमाते लोग महंगाई से परेशान हैं और चाहते हैं कि सरकार हमारा बोझ उठाए, टैक्स कम ले. तो अगर गरीबों का कोई इलाका अपनी बुनियादी जरूरत- खाना, कपड़ा, छत- की बात करता है तो मिड्ल क्लास कहता है कि ये हरामखोर लोग हमारी कमाई पर पलते हैं और सरकार के खजाने पर बोझ हैं, उसमें छेद कर रहे हैं. अगर ठीक-ठाक कमाई के बावजूद सब्जी, आटा, दाल, चीनी, प्याज की कीमत से हम रो रहे हैं तो उस परिवार की कल्पना कीजिए जो पांच-छह लोगों का पेट पालता है और उसके पास न तो काम है और न नौकरी. महंगाई के खिलाफ दिल्ली के खाए-अघाए लोग टीवी पर बाइट और अखबारों में बयान देते हैं और पूरे दिन चलाकर हम सरकार को सस्ती दाल बेचने के लिए 12 घंटे के अंदर मजबूर होता देखते हैं. मीडिया की यह ताकत उन गरीबों के हक में क्यों नहीं है.

 

दिल्ली में अवैध निर्माण पर सीलिंग का अभियान शुरू हुआ तो सरकार ने कोर्ट और संसद दोनों जगह अवैध कब्जा करने वालों के बचाव के उपाय किए. अवैध कॉलोनियों को नियमित करने के लिए सरकार कानून बदल लेती है. क्योंकि ये वो लोग हैं जो मीडिया के चहेते हैं और मीडिया में छप रहे उपभोक्ता सामान के ग्राहक हैं. गांव का गरीब तो धोबी का कुत्ता है. न सरकार उसकी परवाह करती है और न मीडिया. क्योंकि उसके पास बिजली नहीं है कि वो किसी चैनल को टीआरपी दिला सके, बिजली होती भी तो टीआरपी का मीटर नहीं होता. पैसे नहीं है कि अखबार खरीदकर वो उसमें छपे फेना सर्फ के विज्ञापन को पढ़े. गरीबी अपने साथ कई तरह के साइड इफेक्ट लेकर आती है. मीडिया और सरकार की बेरुखी भी उनमें से एक है. वोट का समय आएगा तो ये वोट तो देंगे ही. कांग्रेस या बीजेपी को नहीं देंगे तो आरजेडी को देंगे, जेडीयू को देंगे, जेएमएम को देंगे, जिसको भी जिताएंगे दिल्ली में उनको मिला लिया जाएगा.

 

हम दिल्ली में 23-24 घंटे बिजली का मजा लेते हैं लेकिन यह आनंद हमें पटना को 18 घंटा, पूर्णिया को 12 घंटा और राजापुर को 6 घंटा बिजली देने की शर्त पर मिल रहा है. सरकार क्यों नहीं तय कर लेती कि देश में 100 मेगावाट बिजली है और हम इसे हर नागरिक को समान तरीके से बांटेंगे और इसलिए दिल्ली को 13 घंटा और राजापुर को भी 13 घंटे बिजली की आपूर्ति की जाएगी. सरकार ऐसा करके देखे, दिल्ली का मध्य वर्ग लोहरदगा के नक्सलियों से बड़ा उत्पाती न निकल जाए तो कहिए.

 

दो-तीन दिन पहले मोंटेक सिंह कह रहे थे कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या के संशोधित अनुमान से सरकार को 6000 करोड़ का ज्यादा खर्च उठाना होगा. ये मोंटेक साहब मनरेगा, बीपीएल जैसी योजनाओं पर खर्च के समय ही इस तरह से बोलते हैं .... सरकार को इतना खर्च उठाना होगा.... ऐसे बोलते हैं जैसे देश उनकी जागीर है और उसका पैसा उनकी बपौती और उन्हें सारा बोझ उठाना पड़ रहा है. मोंटेक सिंह यही बात तब नहीं कहते जब वो किसी बड़ी कंपनी को टैक्स हॉलीडे देते हैं, उन्हें तब भी कहना चाहिए कि फलां कंपनी की इस योजना से देश को 1 लाख करोड़ या अठन्नी का खर्च उठाना पड़ेगा. जिसके वोट से सरकार चला रहे हो, जिस सरकार ने तुम्हारी पगड़ी नीली कर रखी है, उसी वोटर पर होने वाले खर्च के बारे में ऐसा कह रहे हो जैसे वो हरामखोर हों. भैया, आपके पास काम है तो उनको काम दे दो, वो कामचोर निकलें तो कहना. काम दोगे नहीं तो वो कमाएंगे क्या और खाएंगे क्या. नक्सलियों ने कंधे पर बंदूख रखकर घर में चूल्हा जला दिया है तो वो उसके साथ क्यों न जाएं.

 

सीआरपीएफ के जवानों की शहादत से सब दुखी हैं क्योंकि वो निर्दोष थे. उनका कसूर यही था कि वो सरकार की सुरक्षा एजेंसी के वो नुमाइंदे थे जो जंगलों या पहाड़ों से अपने काम की चीज निकालने वाली कंपनियों के वहां तक पहुंचने की सरकारी जिद की पूर्ति में झोंक दिए गए हैं. आदिवासी अगर नहीं चाहते कि छतरपुर की पहाड़ी को ध्वस्त करके लोहा निकाला जाए तो इसमें दिक्कत कहां हैं. सरकार को इसी से दिक्कत है कि उसने किसी कंपनी से पैसे वसूल लिए हैं कि फलां इलाके का लोहा तुम्हारा. कंपनी लोहा खोदने गई तो लोगों ने खदेड़ दिया. पुलिस वाले भेजे गए. गांव वालों को रगेद दिया. पुलिस पहुंची तो हथियारबंद नक्सली भी पहुंच गए. जनता ने कहा कि पुलिस के साथ जाएंगे तो ये लोग जंगल कटवाकर लोहा को निकलवा देंगे, लेकिन नक्सलियों के साथ गए तो जंगल बचने की गुंजाइश है. जंगल ही उनका जीवन है. स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली जैसी चीजों के मामले में सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड उनके पास ही है. सरकार पर भरोसा करने से ज्यादा बेहतर उन्हें नक्सलियों पर भरोसा करना दिखता है. एक कॉरपोरेशन की तरफ काम कर रही सरकार अपने व्यापारिक फैसलों का विरोध करने वाली हर आवाज, हर जमात को नक्सली, आतंकवादी और देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताने और उनकी लाश बिछाने को तैयार है.

 

नक्सली या उनके पीछे खड़े सौ-हजार-लाख या जो भी संख्या सरकार आंकती हो, ये लोग संसद या राष्ट्रपति भवन नहीं मांग रहे हैं. वो बस यही कह रहे हैं कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दो, जंगल में हैं तो जंगल में ही रहने दो. तलहटी में हैं तो यहीं रहने दो. अब यहां से हिलाओ मत क्योंकि हमने इसी के साथ जीना सीख लिया है. अगर उनके पास पैसा नहीं है लेकिन वो भारत के नागरिक हैं तो क्या सड़क, अस्पताल, बिजली, स्कूल, घर और भोजन मांगना अपराध है, पाप है. सरकार इन चीजों की मांग को जंतर-मंतर से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं देती इसलिए ये सरकार है जो लोगों को मजबूर करती है कि वो मांग रखने या विरोध करने के वैकल्पिक तरीके अपनाए. किर्गिस्तान में लोगों ने राष्ट्रपति को देश से खदेड़ दिया. बैंकॉक में लोगों ने सरकार का हुक्का-पानी बंद कर रखा है. भारत के लोग इतने एकजुट और इतने साहसी नहीं हैं कि वो गरीबों के दुश्मनों को दिल्ली आकर खदेड़ सकें. इसलिए नक्सलियों ने अपने घर के आसपास ही सरकार के शागिर्दों से निपटने का हिंसक तरीका अपनाया है. ये दुखद है, देश के लिए खतरनाक है, घातक है लेकिन इस सबके बावजूद सरकार के पास इससे निपटने का जो तरीका है, वो जहरीला है और पूरे शरीर में फैलेगा. शहीदों पर फूल चढ़ाने और लाल सलाम के नारे लगाने का सिलसिला कब खत्म होगा, कैसे खत्म होगा, ये सबसे बड़ा सवाल है. कॉरपोरेट सरकार के गृहमंत्री के पास इसका जवाब नहीं हो सकता.